चीन के साथ आत्मीय संबंध कायम रखने के लिए बीते करीब साढ़े छह दशकों से भारत अपना बहुत कुछ त्याग करता रहा है। यहां तक कि उसने सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता भी चीन को समर्पित कर दिया। तिब्बत की कुर्बानी दे दी, लेकिन उसके बाद भी चीन भारत के साथ निरंतर छल करता रहा। पहले तिब्बत फिर हिमालय से सटे देशों में अपनी दादागीरी शुरू कर दी।
भारत विरोध की लहर उन देशों में पैदा करना चीन की छल का एक हिस्सा बन गया। फिर भारतीय उपमहाद्वीप में चीन की दखलंदाजी निरंतर बढ़ती चली गई। इसलिए भारत चीन की शक्ति प्रसार को रोकने में नाकामयाब रहा। हम एक चीन के सिद्धांत को शिद्दत के साथ मानते रहे, लेकिन चीन हमें एक लचर और लाचार पड़ोसी के रूप में अपनी धारणा बनाता गया।
बदलाव का सिलसिला वर्ष 2014 से शुरू हुआ, लेकिन यह बदलाव भी सांकेतिक था, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी पहली यात्रा भूटान से शुरू की। उसके बाद वह नेपाल गए। यह एक बदलाव की झलक थी। एक गंभीर संदेश था यह चीन के लिए। हिमालय के दायरे में आने वाले देश भारत की विशेष मैत्री और संप्रभुता के अंग हैं, इन पर भारत की नजर है। सुरक्षा की दृष्टि से भी भारत इनकी अनदेखी नहीं कर सकता। शीत युद्ध के कोलाहल ने भारत को दोयम दर्जे के देश के रूप में रूपांतरित कर दिया था।